कविता- शान्त-अदृश्य क्रांति
कविता- शान्त-अदृश्य क्रांति

कविता-
शान्त-अदृश्य क्रांति
समाज में जब देखा,
अनाचार, दुराचार,
अत्याचार, बलात्कार,
दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार तो मन में आया प्रतिकार।
जब चलें प्रतिकार करने तो पाया,
यहां तो जिसका प्रतिकार करने चले, जिनसे मिले,
जिनका साथ लेना चाहा
वो तो डूबे हुए हैं
चोरी, डकैती, लूट, मिलावट,
कमतौल, गुण्डागर्दी, दादागिरी,
साम्प्रदायिकता, अवसरवाद, चाटुकारिता,
जातिवाद, एवं हीन मानसिकता में,
फिर मन में आया प्रतिकार।
फिर चले प्रतिकार करने तो पाया
कुछ लोग बहुत अच्छे-भले दिखते हैं,
कुछ करना चाहते हैं,
इन सब बुराइयों से लड़ना चाहते हैं।
करीब गये, कुछ समय लगाया,
कुछ पैसा लगाया तो पाया कि
ये तो सामाजिकता एवं नैतिकता का
मुखौटा पहने हुए हैं।
असल में तो जाना चाहते हैं सत्ता में
और, उसके प्रयास में बने बैठे हैं बगुला भगत।
उनकी सच्चाई जानकर समय एवं पैसा बर्बाद कर
फिर आया मन में प्रतिकार।
फिर चले प्रतिकार करने,
मिले कुछ आध्यात्मिक गुरुओं से
और सोचा की इनके माध्यम से
शायद समाज में बदलाव आ जाये।
समय लगाया, पैसा लगाया और पाया कि
बदलाव तो तब आयेगा
जब ये स्वयं बदलेंगे,
ये तो सिर्फ प्रवचन करते हैं,
करते तो वही हैं,
जो समाज का सामान्य नागरिक करता है,
इनका दम्भ, महत्वाकांक्षा एवं ईर्ष्या का भाव
इन्हें कभी ऊपर नहीं उठने देता।
ये कभी समाज में परिवर्तन नहीं ला सकते।
फिर आया मन में प्रतिकार
फिर पहुंचे सरकारी अधिकारियों-
न्यायाधीशों एवं सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञों के पास,
सोचा इनके पास तो संवैधानिक रूप से
समाज को ठीक करने की ठेकेदारी है,
इन्हें कुछ बताया जाये,
इनके साथ कुछ समय लगाया जाये,
पैसा लगाया जाये एवं इनसे मित्रता की जाये।
इन्हें वोट दिया, पैसा दिया, रूतबा दिया।
इनके लिये तमाम साधन जुटाये।
इन्हें माँ-बाप माना,
मगर, इनके और करीब गये तो पाया कि
झगड़े की जड़ तो ये ही हैं।
ये वह गंगोत्री हैं-
जहां से समाज की सभी समस्याओं को पानी मिलता है,
और उनका पालन पोषण होता है।
इनकी शरण में ही सारी समस्याएं विकराल रूप लेती हैं,
जब जनता हाहाकार करती है,
बिलबिलाती है तो
उसे खत्म करने के लिये ये लोग
दूसरी समस्या पैदा कर देते हैं।
इनकी मिलीभगत से आम आदमी
चाहे वह किसान हो,
मजदूर हो,
छोटा व्यापारी हो,
बेरोज़गार युवक हो युवती या छोटा कर्मचारी,
आज हैरान है, परेशान है, मजबूर है,
अपने आपको लुटा, पिटा एवं ठगा-सा महसूस कर रहा है।
इनके आगोश में फलते हैं, फूलते हैं,
अठलेखियां करते हैं, मौज-मस्ती करते हैं-
बड़े उद्योगपति, विदेशी कम्पनियां,
बड़े पेशेवर वकील,
सीए, इन्जीनियर, कलाकार, पत्रकार आदि।
इनके पास छोटों की कोई बिसात नहीं,
गिनती नहीं,
बस और बस,
बड़े ही जीने चाहिएं,
इनके विचार में तो
छोटे सिर्फ लुटने-पिटने एवं मरने के लिये ही बने हैं।
फिर आया मन में प्रतिकार,
प्रतिकार करने के लिये,
फिर गया क्रांतिकारियों के पास,
जिन्होंने
इस व्यवस्था के विरोध में उठा रखे हैं हथियार,
उनसे मिलने पर पता चला कि
उनके मन में है बहुत गुस्सा,
वे चाहते हैं सब कुछ बदलना,
ख़ूनी क्रांति के माध्यम से।
कुछ समय गुस्सा चलता है,
आदर्श विचार आते हैं, पनपते हैं,
और उनके अनुसार परिणाम भी आते हैं,
पर कुछ समय बाद ये सब ठंडे हो जाते हैं,
वे सब खेलने लगते हैं विदेशी शक्तियों के हाथों में,
जिनका मक़सद,
हमारे देश में फैलाना होता है आतंक,
हिंसा एवं जातीय संघर्ष,
हमारे विकास एवं अर्थव्यवस्था में बाधा पहंुचाना,
यह मार्ग तो
और मुश्किलें एवं जटिलता पैदा करने वाला है।
उससे लम्बे समय में
कुछ भी हासिल नहीं हो सकता,
यह रास्ता सर्वनाशी है।
फिर आया मन में आया प्रतिकार
फिर सोचा,
कहीं यह प्रतिकार ही तो ग़लत नहीं है।
समाज में सब लोग ग़लत कैसे हो सकते है?
तब पाया,
सब अपनी जगह ठीक हैं,
हमें उनमें दोष देखने का कोई अधिकार नहीं है,
सब अपने हिसाब से,
अपनी समय-परिस्थिति के अनुसार,
देश एवं समाज की सेवा कर रहे हैं,
और अपना जीवन-यापन कर रहे हैं।
फिर सोचा,
हमंे अपना सोचना है कि
हम अपनी,
पारिवारिक एवं सामाजिक ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए
कितना देश एवं समाज के लिये अच्छा कर सकते हैं,
तो पाया कि देश एवं समाज में आई बुराइयां,
कमज़ोरियां, गिरावट को दूर करने का
लगातार प्रयास किये जाने की आवश्यकता है,
उसे कैसे किया जाये?
तो पाया कि ऐसा काम करो,
जिसमें किसी का विरोध न हो,
न वह किसी प्रतिक्रिया में हो,
बस साकारात्मक प्रयास हो,
जो सतत् चले
और उत्तरोत्तर बढता जाये,
जो हो सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय,
जो जड़ों से समाज को
ठीक करने का प्रयास हो,
जो हमारी प्रकृति, प्रवृत्ति,
संस्कृति, विचारधारा,
आदर्श मूल्यों एवं विरासत से जुड़ा हो,
जो नित् नूतन प्रयोग करता हो,
जो सृजनात्मक हो,
मौलिक हो एवं सबको जोड़ने, वाला हो,
संस्कार देने वाला हो,
नया जातिविहीन समाज बनाने वाला हो,
उन्नत एवं समृद्ध भारत बनाने वाला हो,
जिसमें नये प्रयोगों का स्वागत हो,
साथ ही पुरातन संस्कृति,
जीवन मूल्यों एवं आदर्शों पर गर्व हो
और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता हो।
ऐसा तभी हो सकता है
जब हम बनाएं, चलाएं एवं चलाते रहें
एक शिक्षण संस्थान,
जो बने शिक्षा, संस्कार,
प्रेरणा एवं आत्म विश्वास को
सतत् रूप से प्रदान करने की प्रयोगशाला
और उसमें पैदा हों देशभक्त,
आत्मविश्वासी, निडर, कुशल,
संवेदनशील, संस्कारयुक्त नौजवान।
तब होगा एक नेक राष्ट्र एवं अच्छे समाज का निर्माण,
जो हमारी
वसुधैव कुटुम्बकम की कल्पना को-
साकार करेगा,
तब न तो कोई प्रतिशोध
और न होगा कोई प्रतिकार।
यही होगी हमारी अदृश्य शान्त क्रांति का आधार।
।। जय हिन्द ।।
दिनांक- 01.08.2017
लेखक
डॉ. अशोक कुमार गदिया
कुलाधिपति, मेवाड़ विश्वविद्यालय
गंगरार, चित्तौड़गढ़, राजस्थान