सुख की खोज
सुख की खोज

सुख की खोज
जीवन में सुखी होना और आगे बढ़ना
दोनों अलग-अलग बातें हैं।
जीवन के हर मोड़ पर,
सुख की परिभाषा बदलती रहती है।
जब हम बाल अवस्था में होते हैं,
हमें हर वह चीज सुख देती है,
जो नई हो, नूतन हो, और-
हमारे हमउम्र लोगों के पास न हो,
चाहे फिर वह खाने-पीने की वस्तु हो,
पहनने के कपड़े हों, या
इस्तेमाल करने की वस्तुएं हों।
हमें इससे कोई मतलब नहीं होता कि
ये सभी वस्तुएं कहाँ से आ रही हैं।
जब हम युवा अवस्था में आते हैं, तो
हम भौतिक प्रगति की ओर आकर्षित होते हैं।
हमें अच्छी नौकरी,
अच्छा-संुदर जीवन साथी,
अच्छा मकान, अच्छी गाड़ी,
स्मार्ट मोबाइल फोन इत्यादि
आकर्षित करते हैं, और
इनको किसी भी तरीके से प्राप्त कर
हम सुखी होते हैं।
जब हम प्रौढ़ावस्था में आते हैं,
तो हमें इस बात पर
सबसे ज्यादा खुश होती है कि
समाज के अन्य लोग हमें पहचानंे,
हमारा सम्मान करें और
हमें सामाजिक पदो पर बिठाएं।
जब हम वृद्धावस्था में आते हैं, तो
हमें सबसे ज्यादा खुशी होती है कि
लोग हमारी बात सुनें, साथ ही
हमारे परिवार के लोग समृद्ध हों।
इन सब अवस्थाओं में
वांछित वस्तुओं को प्राप्त करना,
इन्सान को खुश कर सकता है, परन्तु
आगे नहीं बढ़ा सकता।
आगे बढ़ना और ही होता है।
असल में हर अवस्था में
हम सब वस्तुओं को
अपने साथ-साथ
अपने साथ के लोगों के लिये
जुटाने का प्रयास करें, और
इस स्थिति में अपना छूट जाये,
तो भी उसकी चिन्ता न करें, और
अपने साथ वालों को,
ज़रूरतमन्दों को दिलवाकर खुश हों।
इसे कहते हैं
आगे बढ़ना और यही है-
असली सुख।
डाॅ. अशोक कुमार गदिया
कुलाधिपति
मेवाड़ विश्वविद्यालय
गंगरार, चित्तौड़गढ़,
राजस्थान